लेखक: ओमप्रकाश वाल्मीकि
पुस्तक समीक्षा – खंड १
समीक्षक: आरव राऊत, कक्षा 10, जवाहर नवोदय विद्यालय, अमरावती (महाराष्ट्र)

मैंने यह किताब जनवरी २०२५ में पढ़ना शुरू की थी, जिसे मैंने जल्दी ही पढ़कर ख़त्म कर दी। इस दौरान मैं कई सारी किताबें पढ़ रहा था, जो कि दलित आत्मकथाएँ थीं, जो दलित समाज के संघर्ष पर आधारित थीं, जैसे मराठी में उचल्या, कोल्हाट्याचं पोर, मरण स्वस्त होत आहे, बलूतं, जेव्हा मि जात चोरली, और हिंदी दलित साहित्य में यह मेरी पहली किताब थी जो मैंने पढ़ी। मेरे मराठी के शिक्षक ने मुझे इनमें से कई सारी किताबें पढ़ने का सुझाव दिया था।
जूठन किताब के लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि हैं और उन्होंने अपनी कहानी बहुत गहराई से लिखी। ओमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म उत्तर प्रदेश के वरला गांव में हुआ। उनकी जाति भंगी थी, जिसे उनकी दैनंदिन भाषा में चूहड़ा के नाम से जाना जाता है। उन्हें उनकी जाति की वजह से काफी दिक्कतें सहन करनी पड़ीं। उनके पिता उन्हें पढ़ने के लिए काफी उकसाते थे। उन्होंने ओमप्रकाश को स्कूल में भेजा, जहाँ उन्हें काफी भेदभाव झेलना पड़ा। उन्हें कई बार कक्षा के सबसे पिछली रेखा में बैठाया जाता था। शिक्षक वर्ग भी उनसे काफी घृणा करते थे। सभी शिक्षक लोग त्यागी थे, जो ऊपरी वर्ग से थे। उनकी जाति को श्रेष्ठ माना जाता था।
उन्होंने कई बार जातिभेद सहन किया। उनके कई किस्से हैं, उनमें से एक किस्सा यह है कि जब वे ४थी कक्षा में थे, उनके हेड मास्टर ने उन्हें शीशम के पेड़ पर चढ़ने बुलाया और उसकी एक पत्ते वाली टहनी तोड़ने को कहा और उसे झाड़ू बनाकर विद्यालय के आंगन को साफ करने के लिए कहा। ओमप्रकाश को वह उनके नाम से या सरनेम से नहीं, उनकी जाति से पुकारते थे, जैसे – “ओ चूहड़े के।” उन्होंने पूरा आंगन साफ कर दिया, फिर उन्होंने कहा, “जा अब स्कूल का पूरा मैदान साफ कर दे।” उन्होंने हेडमास्टर के कहे अनुसार मैदान में झाड़ू लगाना शुरू किया। तभी उनके पिता वहाँ से गुज़रे और उन्होंने ओमप्रकाश को पुकारा और अपने पास बुलाया। ओमप्रकाश ने उनके साथ हुए सारे हादसे का वर्णन किया। यह सुनकर उनके पिताजी आगबबूले हो उठे और उन्होंने ज़ोर से दहाड़ा, “कौन है रे यो हेड मास्टर?” हेड मास्टर ने कहा, “काहे चिल्ला रहा है?” उसमें बहुत बहस हुई।
अगले दिन वह फिर से कक्षा में बिना किसी को पूछे बैठ गया तो उन्हें खदेड़ कर बाहर झाड़ू लगाने को कहा गया। ऐसे ही कई सारे किस्से इस किताब में लिखे हैं। वे बड़े हुए, उन्होंने कई कठिनाइयों के बावजूद १० वीं पास करके ११वीं में पढ़ना शुरू किया। १२वीं में वे फेल हो गए, असलियत में उन्हें पास नहीं किया गया। उनके हेडमास्टर ने उन्हें पूरे साल प्रैक्टिकल करने से रोका। ऐसे ही उन्होंने पढ़ाई छोड़ के एक फैक्ट्री में दाखिला लिया और उसमें लग गए। उस फैक्ट्री का नाम ऑर्डिनेंस फैक्ट्री था। वे उसमें आखिरी तक रहे। बीच में उनका विवाह हुआ।
किताब के अंत में उन्होंने सरनेम लगाने, न लगाने को लेकर उनके और उनके परिवार के बीच हुए वाद-विवाद के बारे में लिखा है। वे सरनेम लगाने के समर्थन में थे और उनके परिवार जन विरोधी। उनके परिवार जन सरनेम लगाने से कतराते थे।
इस किताब का दूसरा खंड भी है, जिसे मैंने जनवरी के अंत में पढ़ा ।
पुस्तक समीक्षा – खंड २
ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य के बेहद उत्कृष्ट लेखक थे। वे साहित्य के क्षेत्र में काफी आगे बढ़ गए थे। उनकी कथाएँ एवं सभी कृतियाँ कई वृत्तपत्र एवं मैगज़ीन में छपी थीं। वे कवि भी थे। उनकी कविता दलितों के इर्द-गिर्द ही होती थी।
उन्होंने ‘जूठन भाग १’ यह किताब कई साल पहले लिखी थी और वह हद से ज्यादा प्रचलित हो गई थी। उनकी पहचान इसी किताब से हुई थी, वे इस किताब से बड़े प्रसिद्ध हुए। मुझे समझ नहीं आ रहा कहाँ से शुरू करूँ क्योंकि मुझे ऐसा लग रहा है कि लिखने के लिए बहुत कुछ है, मैं इस किताब का दीवाना हो गया हूँ।
उन्होंने किताब की शुरुआत देहरादून के ऑर्डिनेंस फैक्ट्री में काम से की। वे अपने काम में बड़े कुशल थे क्योंकि उन्होंने उस काम की ट्रेनिंग कर रखी थी। अब उनकी ज़िंदगी एक सीधी पटरी पर आ गई थी। अभी उनकी ज़िंदगी में उतार-चढ़ाव का दर काफी कम हो गया था। वे उस फैक्ट्री में सम्मानित पद पर थे। फिर भी कई लोग उनके सरनेम की वजह से उनकी क्षमता को मापते थे, लेकिन वे इस परिस्थिति से निकलने में अवगत हो गए थे।
उनके जीवन काल में कई सारे घनिष्ठ मित्र आए, जिन्होंने उनका साथ उनके अंत तक नहीं छोड़ा। उनके साथ कई सारी घटनाएं हुईं, लेकिन मुझे जो पसंद आई, मैं वह घटना यहाँ लिखूंगा। उनके फैक्ट्री में, उनके तबादले के सिलसिले में वे देहरादून से जबलपुर और जबलपुर से देहरादून इस तरह सफर करते रहे।
जो घटना मुझे पसंद आई, वह ज्यादा बुरी लगने वाली नहीं है, बल्कि वह एक धूर्त बॉस का अपने कनिष्ठ के प्रति एक द्वेष भाव को प्रदर्शित करती है। एक सुबह की बात है, लेखक अपने काम में व्यस्त होते हैं, तब उन्हें उनके वरिष्ठ का फोन आता है। उन्होंने कहा, “जल्दी कुछ नौकरों को मेरे निवास स्थान पर भेज दो क्योंकि मेरे बंगले के सामने गड्ढे में एक बैल मरा पड़ा है।” यह सुनकर वाल्मीकि जी स्वयं वहाँ पर कुछ सेवकों को ले गए और उनसे काम करवाया, लेकिन तभी उनके ध्यान में आया कि ये सभी नौकर उस मरे बैल की तेज दुर्गंध के बावजूद बड़े ही साहस से काम कर रहे थे। इसके बावजूद वह वरिष्ठ उन नौकरों को गाली देकर कह रहा था कि, “कैसे मरियल तरीके से काम कर रहे हो।”
यह सुनकर लेखक को गुस्सा आया और उन्होंने अपने वरिष्ठ को तीखी ज़ुबान में तीखा जवाब दे दिया। फिर काम होने के बाद उन्होंने फैक्ट्री की तरफ से नौकरों को सेफ्टी इक्विपमेंट प्रदान किए।
ऐसे ही उन्होंने पूरी ज़िंदगी सुखी होकर निकाली और आखिर में वे बहुत बीमार होते हैं और यहीं पे किताब समाप्त हो जाती है।
इन पुस्तकों को “राधाकृष्ण पेपरबैक्स” नामक पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है। इन दोनों किताबों की कीमत कुल मिलाकर ₹२९९ है।

I really like this piece of writing. All the best for future writings.
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nice write up. Keep it up
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बहुत सुन्दर लेखन कला है
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